तहज़ीब हाफी शायरी(Tehzeeb Hafi Shayari)
दिल मोहब्बत में मुब्तला हो जाए
दिल मोहब्बत में मुब्तला हो जाए
जो अभी तक न हो सका हो जाए
तुझ
में ये ऐब है कि ख़ूबी है
जो तुझे देख ले तेरा हो जाए
ख़ुद को
ऐसी जगह छुपाया है
कोई ढूँढे तो लापता हो जाए
मैं तुझे छोड़ कर
चला जाऊँ
साया दीवार से जुदा हो जाए
बस वो इतना कहे मुझे तुम
से
और फिर कॉल मुंक़ता' हो जाए
दिल भी कैसा दरख़्त है 'हाफ़ी'
जो
तिरी याद से हरा हो जाए
अगर कभी तेरे नाम पर जंग हो गई तो
उसी जगह पर जहाँ कई रास्ते मिलेंगे
पलट के आए तो सबसे पहले तुझे मिलेंगे।
अगर कभी तेरे नाम पर जंग हो गई तो
हम ऐसे बुजदिल भी पहले सफ में खड़े
मिलेगे।
तुझे ये सड़के मेरे तवस्सुत से जानती हैं
तुझे हमेशा ये सब
इशारे खुले मिलेंगे।
अब्बास ताबिश की ग़ज़लें /शायरी/मुशायरा
उसके घर का पता जानते हो
तुम्हें हुस्न पर दस्तरस है बहोत, मोहब्बत वोहब्बत
बड़ा जानते हो
तो फिर ये बताओ कि तुम उसकी आंखों के बारे में क्या जानते हो?
ये ज्योग्राफियाँ, फ़लसफ़ा, साइकोलोजी, साइंस, रियाज़ी वगैरह
ये सब जानना भी
अहम है मगर उसके घर का पता जानते हो?
यार ये कैसा महबूब है
घर में भी दिल नहीं लग रहा, काम पर भी नहीं जा रहा
जाने क्या ख़ौफ़ है जो तुझे
चूम कर भी नहीं जा रहा।
रात के तीन बजने को हैं, यार ये कैसा महबूब है?
जो गले भी नहीं लग रहा और घर
भी नहीं जा रहा।
मैं पेड़ काट के कश्ती नहीं बनाऊंगा
गली से कोई भी गुज़रे तो चौंक उठता हूँ
नये मकान में खिड़की नहीं बनाऊंगा।
फरेब दे कर तेरा जिस्म जीत लूँ लेकिन
मैं पेड़ काट के कश्ती नहीं बनाऊंगा।
तुम्हें पता तो चले बेजबान चीज का दुःख
मैं अब चराग की लौ ही नहीं बनाऊंगा।
मैं दुश्मनों से जंग अगर जीत भी जाऊं
तो उनकी औरतें कैदी नहीं बनाऊंगा।
मैं एक फिल्म बनाऊंगा अपने सरवत पर
उसमें रेल की पटरी नहीं बनाऊंगा।
धूप पड़े उस पर तो तुम बादल बन जाना
धूप पड़े उस पर तो तुम बादल बन जाना
अब वो मिलने आये तो उसको घर ठहराना।
तुमको दूर से देखते देखते गुज़र रही है
मर जाना पर किसी गरीब के काम न आना।
उस लड़की से बस अब इतना रिश्ता है
ख्वाबों को आँखों से मिन्हा करती है
नींद हमेशा मुझसे धोखा करती है।
उस लड़की से बस अब इतना रिश्ता है
मिल जाए तो बात वगैरा करती है।
गए वक्त में हम दरिया रहे हैं
अब उस जानिब से इस कसरत से तोहफे आ रहे हैं
के घर में हम नई अलमारियाँ बनवा
रहे हैं।
हमे मिलना तो इन आबादियों से दूर मिलना
उससे कहना गए वक्त में हम दरिया रहे
हैं।
तुझे किस किस जगह पर अपने अंदर से निकालें
हम इस तस्वीर में भी तूझसे मिल के
आ रहे हैं।
हजारों लोग उसको चाहते होंगे हमें क्या
के हम उस गीत में से अपना हिस्सा गा
रहे हैं।
बुरे मौसम की कोई हद नहीं तहजीब हाफी
फिजा आई है और पिंजरों में पर मुरझा
रहे हैं।
अब वो मेरे ही किसी दोस्त की मनकूहा है
ख़ाक ही ख़ाक थी और ख़ाक भी क्या कुछ नहीं था
मैं जब आया तो मेरे घर की जगह
कुछ नहीं था।
क्या करूं तुझसे ख़यानत नहीं कर सकता मैं
वरना उस आंख में
मेरे लिए क्या कुछ नहीं था।
ये भी सच है मुझे कभी उसने कुछ ना कहा
ये भी सच है कि उस औरत से छुपा कुछ
नहीं था।
अब वो मेरे ही किसी दोस्त की मनकूहा है
मै पलट जाता मगर
पीछे बचा कुछ नहीं था।
ये किस तरह का ताल्लुक है
ये किस तरह का ताल्लुक है आपका मेरे साथ
मुझे ही छोड़ के जाने का मशवरा मेरे
साथ।
यही कहीं हमें रस्तों ने बद्दुआ दी थी
मगर मैं भुल गया और कौन था मेरे साथ।
वो झांकता नहीं खिड़की से दिन निकलता है
तुझे यकीन नहीं आ रहा तो आ मेरे
साथ।
चोर दरवाज़ा बना लेता
तुझे भी अपने साथ रखता और उसे भी अपना दीवाना बना लेता
अगर मैं चाहता तो दिल
में कोई चोर दरवाज़ा बना लेता।
मैं अपने ख्वाब पूरे कर के खुश हूँ पर ये पछतावा नही जाता
के मुस्तक़बिल
बनाने से तो अच्छा था तुझे अपना बना लेता।
अकेला आदमी हूँ और अचानक आये हो, जो कुछ था हाजिर है
अगर तुम आने से पहले
बता देते तो कुछ अच्छा बना लेता।
दीया जले
तारीकियों को आग लगे और दीया जले
ये रात बैन करती रहे और
दीया जले।
उसकी जबान में इतना असर है कि निशब्द
वो रौशनी की बात करे और दीया जले।
तुम चाहते हो कि तुमसे बिछड़ के खुश रहूँ
यानि हवा भी चलती रहे और दीया जले।
क्या मुझसे भी अज़ीज़ है तुमको दीए की लौ
फिर तो मेरा मज़ार बने और दीया जले।
सूरज तो मेरी आँख से आगे की चीज़ है
मै चाहता हूँ शाम ढले और दीया जले।
तू हमें चूमता था
जहन पर जोर देने से भी याद नहीं आता कि हम क्या देखते थे
सिर्फ इतना पता है
कि हम आम लोगों से बिल्कुल जुदा देखते थे।
तब हमें अपने पुरखों से विरसे में आई हुई बद्दुआ याद आई
जब कभी अपनी आंखों
के आगे तुझे शहर जाता हुआ देखते थे।
सच बताएं तो तेरी मोहब्बत ने खुद पर तवज्जो दिलाई हमारी
तू हमें चूमता था तो
घर जाकर हम देर तक आईना देखते थे।
सारा दिन रेत के घर बनते हुए और गिरते हुए बीत जाता
शाम होते ही हम दूरबीनों
में अपनी छतों से खुदा देखते थे।
उस लड़ाई में दोनों तरफ कुछ सिपाही थे जो नींद में बोलते थे
जंग टलती नहीं थी
सिरों से मगर ख्वाब में फ़ाख्ता देखते थे।
दोस्त किसको पता है कि वक़्त उसकी आँखों से फिर किस तरह पेश आया
हम इकट्ठे थे
हंसते थे रोते थे एक दूसरे को बड़ा दखते थे।
लड़कियाँ इश्क़ में कितनी पागल होती हैं –
थोड़ा लिखा और ज़्यादा छोड़ दिया
आने वालों के लिए रास्ता छोड़ दिया।
लड़कियाँ इश्क़ में कितनी पागल होती हैं
फ़ोन बजा और चूल्हा जलता छोड़ दिया।
तुम क्या जानो उस दरिया पे क्या गुजरी
तुमने तो बस पानी भरना छोड़ दिया।
बस कानों पर हाथ रख लेते थोड़ी देर
और फिर उस आवाज़ ने पीछा छोड़ दिया।
सब परिंदों से प्यार लूँगा मैं
सब परिंदों से प्यार लूँगा मैं
पेड़ का रूप धार लूँगा मैं।
रात भी तो गुजार ली मैंने
जिन्दगी भी गुजार लूंगा मैं।
तू निशाने पे आ भी जाए अगर
कौन सा तीर मार लूँगा मैं।
क्या हुआ
एक और शख़्स छोड़कर चला गया तो क्या हुआ
हमारे साथ कौन सा ये पहली मर्तबा
हुआ।
अज़ल से इन हथेलियों में हिज्र की लकीर थी
तुम्हारा दुःख तो जैसे मेरे हाथ
में बड़ा हुआ।
मेरे खिलाफ दुश्मनों की सफ़ में है वो और मैं
बहुत बुरा लगूँगा उस पर तीर
खींचता हुआ।
चोरी कर लेना है
मल्लाहों का ध्यान बटाकर दरिया चोरी कर लेना है,
क़तरा क़तरा करके मैंने सारा
चोरी कर लेना है।
तुम उसको मजबूर किए रखना बातें करते रहने पर
इतनी देर में मैंने उसका लहज़ा
चोरी कर लेना है।
आज तो मैं अपनी तस्वीर को कमरे में ही भूल आया हूँ
लेकिन उसने एक दिन मेरा
बटुआ चोरी कर लेना है।
मेरे ख़ाक उड़ाने पर पाबन्दी आयत करने वालों
मैंने कौन सा आपके शहर का रास्ता
चोरी कर लेना है।
तू तीर है तो मेरे कलेजे के पार हो
जो तेरे साथ रहते हुए सोगवार हो,
लानत हो ऐसे शख़्स पे और
बेशुमार हो।
अब इतनी देर भी ना लगा, ये हो ना कहीं
तू आ चुका हो और तेरा इंतज़ार हो।
मै फूल हूँ तो फिर तेरे बालो में क्यों नही हूँ
तू तीर है तो मेरे कलेजे के
पार हो।
एक आस्तीन चढ़ाने की आदत को छोड़ कर
‘हाफ़ी’ तुम आदमी तो बहुत शानदार हो।
सुर्ख़ हुई जाती है वादी शहज़ादी
तू ने क्या क़िन्दील जला दी शहज़ादी
सुर्ख़ हुई जाती है वादी शहज़ादी
शीश-महल को साफ़ किया तिरे कहने पर
आइनों से गर्द हटा दी शहज़ादी
अब तो ख़्वाब-कदे से बाहर पाँव रख
लौट गए हैं सब फ़रियादी शहज़ादी
तेरे ही कहने पर एक सिपाही ने
अपने घर को आग लगा दी शहज़ादी
मैं तेरे दुश्मन लश्कर का शहज़ादा
कैसे मुमकिन है ये शादी शहज़ादी
वो ज़ुल्फ़ सिर्फ़ मिरे हाथ से सँवरनी है
न नींद और न ख़्वाबों से आँख भरनी है
कि उस से हम ने तुझे देखने की करनी है।
किसी दरख़्त की हिद्दत में दिन गुज़ारना है
किसी चराग़ की छाँव में रात करनी
है।
वो फूल और किसी शाख़ पर नहीं खिलता
वो ज़ुल्फ़ सिर्फ़ मिरे हाथ से सँवरनी
है।
तमाम नाख़ुदा साहिल से दूर हो जाएँ
समुन्दरों से अकेले में बात करनी है।
हमारे गाँव का हर फूल मरने वाला है
अब उस गली से वो ख़ुश्बू नहीं गुज़रनी
है।
चीख़ते हैं दर-ओ-दीवार नहीं होता मैं
चीख़ते हैं दर-ओ-दीवार नहीं होता मैं
आँख खुलने पे भी बेदार नहीं होता मैं
ख़्वाब करना हो सफ़र करना हो या रोना हो
मुझ में ख़ूबी है बेज़ार नहीं होता में
अब भला अपने लिए बनना सँवरना कैसा
ख़ुद से मिलना हो तो तय्यार नहीं होता मैं
कौन आएगा भला मेरी अयादत के लिए
बस इसी ख़ौफ़ से बीमार नहीं होता मैं
मंज़िल-ए-इश्क़ पे निकला तो कहा रस्ते ने
हर किसी के लिए हमवार नहीं होता मैं
तेरी तस्वीर से तस्कीन नहीं होती मुझे
तेरी आवाज़ से सरशार नहीं होता मैं
लोग कहते हैं मैं बारिश की तरह हूँ 'हाफ़ी'
अक्सर औक़ात लगातार नहीं होता मैं
तहज़ीब हाफी कौन हैं?
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नई शैली और सुंदर लहजे के कवि तहज़ीब हफी का जन्म 5 दिसंबर 1989 को रेट्रा, तहसील तौंसा शरीफ (डेरा गाजी खान जिला) में हुआ था। उन्होंने मेहरान यूनिवर्सिटी से सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग करने के बाद बहावलपुर यूनिवर्सिटी से उर्दू में एमए किया और आजकल लाहौर में हैं।
तहज़ीब की शक्ल और चाल-चलन में जिस तरह की मासूमियत, सहजता और तामझाम है, ठीक वैसी ही खूबियां उनमें पाई जाती हैं। कविता। तहजीब हाफी की शायरी दिल के तार छूती है, उनके शब्दों की व्यवस्था और अभिव्यक्ति के लहजे में ऐसा जादू है, जो पढ़ने वाले और सुनने वाले दोनों के होश उड़ा देता है. जो बताता है कि क्यों उनकी गिनती युवा पीढ़ी के सबसे लोकप्रिय कवियों में होती है।